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'मंथन'

इस गगन चलूँ, उस गगन चलूँ, मैं जीवन हूँ, न सहम चलूँ, पग-पग पर कांटें बिछे पड़े, सहते-सहते हर कदम चलूँ |  बचपन न देखा है मैंने, न हि किशोरी का बल ही मिला, निर्भय होकर न चल ही सकूँ, न नव-युवती जीवन ही मिला | रग-रग में आग ही लपटें हैं, पग-पग पथरीली राहें हैं, टूटी-फूटी सी सड़कों पर, रोती माओं की आहें हैं | जीवित हूँ, हूँ पर निर्जर सी, सांसें हैं, वो पर आंहें हैं, सकुचाई  सी,  घबराई सी, धूमिल-धुसरित सी राहें हैं | शीशे के सपने लिए हुए, न इधर चलूँ, न उधर चलूँ, न घबराऊँ, न सकुचाऊँ, न रहम सहूँ, न रसम सहूँ | इक नया सवेरा लायी हूँ, नित नए ज्ञान का कंपन है, मस्तक न झुकनेवाला है, ये मानवता का 'मंथन है' | ...ऋतु की कलम से
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मेरी तन्हाईयाँ बोलती हैं

'मेरी तन्हाईयाँ बोलती हैं' कभी साथ देना मेरा, तन्हा हूँ इस सफ़र में, ग़ुम कहीं हो न जाऊं, इस अजनबी से शहर में, न चाहूँ फिर भी दिल का राज़ ये खोलती हैं, ऐसा मैं नहीं कहता, मेरी तन्हाईयाँ बोलती हैं | बीच राह में छोड़ मुझे, मौजों में सहारा न देना, दूर होकर मुझसे तुम, नज़रों का इशारा मत देना, मैं आज भी वहीँ हूँ, तुम्हारे इंतज़ार में,  नम रेत पर लिख रहा हूँ, नाम तेरा मझधार में | तेरे नज़रों के इशारों को गहराइयाँ तोलती हैं, आज भी मेरे आँगन में तेरी परछाइ याँ डोलती हैं, ऐसा मैं नहीं कहता, मेरी तन्हाईयाँ बोलती हैं |

'खुद का निर्माण मैं करता हूँ'

मन की अग्नि, विस्तृत है जल, तन समाधीन को तरसा है, कभी उहा -पोह, मन का है द्वेष, जिस दुविधा में तू भटका है, एक तिलक लहू का माथे पे, एक केश बंधा, शिव की जटा, दुर्बल, मायूस खड़ा होकर, तू क्यूँ है, जर्जर नीरस सा, आवेग न क्यूँ, आवेश न क्यूँ, चला मंद-मंद मुस्काता सा, किसकी किस्मत पे हँसता है, अपना ही हास तू करता है, एक तेज है माथे पर उभरा, एक श्वास में आग की लपटे हैं, है पथविहीन ये सीमाएं, टूटे-फूटे से रस्ते हैं, मैं चला वहां तू देख ज़रा, खुद का निर्माण मैं करता हूँ, वो माटी की मूरत से खुद, अपना इतिहास मैं रचता हूँ, मन की करुणा, तन का आवेग, सृष्टि की रचना कर देगा, सहसा आँचल का धागा ही, जीवन परिवर्तित कर देगा, इस मूक अवस्था में मेरी, रचनायें कटु लगे एक क्षण, वह भी अब मुझसे दूर नहीं, जिसका इतिहास मैं रचता हूँ, मैं चला वहीँ तू देख जहाँ, खुद की रचना मैं करता हूँ, अब पाप-पुण्य का ज्ञान नहीं, अब अकस्मात् ही ठहर गया, जब ठहरा तो, मैंने पाया, कड़ियाँ हाथों में बंधी पड़ी, निर्जल शरीर में कम्पन थी, अज्ञात से डर की सिहरन थी, जब निद्रा से मैं जागा हूँ, आँखें अंधियारी लगती हैं, कानों में कोई सुर न तान,

श्यामल स्मृति

समेटी चाँद की किरणे, बिखेरी सुरमई सुबह, सनी आलाप में आवाज़, घनी थी बादलों की साज़, सजाई सपनो की दुनिया, चला मैं फासलों के साथ, छिटकते कण मेरी साँसों के, श्यामल थी मेरी आवाज़ | करों में थाम के सपने, उरों में बाँध आशाएं, चला मैं बादलों के साथ, थमा मैं बादलों के साथ, कड़ी एक स्नेह की, रोके खड़ी, मुझको है हर-पल-क्षण, रुका मैं आँधियों से और चला मैं आँधियों के साथ | तटों पे आके लहरें, आती हैं, रुक जाती एक पल को, मुझे आभास क्यूँ होता है तेरे साथ होने का, चुरायी याद की परतें, मेरी पूछे बिना मुझ बिन, कुरेदी प्रेम की पाती, लिखी जो तारे हर पल गिन | मेरे कमरे में कलमों की है इक गट्ठर अँधेरे में, है पन्नो में तेरे शब्दों की मदमस्ती अँधेरे में, सहेजी उसकी दृष्टि, अपनी दृष्टि में न जाने कब, वो मेरे साथ आ पहुंची, जो तेरे साथ थी एक दिन | तेरी परछाई भी मेरा पता क्यूँ खोज लेती है, तेरे आने का अंदेसा मुझे हर रोज़ देती है, झरोखे से मैं तुझको देखता हूँ बंद आँखों से, भुलाना चाहूं भी तो याद तेरी आ ही जाती है | ...ऋतु की कलम से

युगांतर

विभक्ति प्रेम की और द्वेष श्यामल है अँधेरे में, तनी आवाज़, नैतिकता, समाहित मन के घेरे में, चवन्नी आठ, कंचा पाँच, लेके चल पड़ा इक दिन, फटी थी जेब, उसमे हाथ, चवन्नी था रहा मैं गिन | किनारा था सड़क का, और मेरे पास एक डिबिया, थी उसमे बंद माँ की आस, थे कुछ सपने मेरे कुछ ख़ास, मैं चलते-चलते न जाने, सिसक उठता था अनजाने, मैं कहता था वो लौटेगा, वो कहती थी, न जाने कब, मैं कहता था कि शायद प्रेम का आभास होगा तब, पहाड़ी पर खड़ा मैं बंद आँखों से हथेली में, उठा लाया, वो रिश्ते, जो थी, बीती इक पहेली में, उठा अपना मैं झोला, खोजता था खत् पिताजी का, जो भीगी थी अभी तक, और सिलवट पाँच थी उसमे | मैं अपनी लेखनी को दे रहा आवाज़ उनकी आज, सघन बदल भिगोता है अचानक तन को मेरे आज, कोई सुन ले मेरे क़दमों की खामोशी,  मेरी आँगन की तुलसी, और मेरी लेखनी का राज़, सिसकते और सिमटते रास्ते ने, दी मुझे आवाज़, मेरी आँगन की तुलसी और मेरी लेखनी का राज़ | ...ऋतु की कलम से  

शिवोहम

एक मुनि की एक कुटी में , स्वर गुंजित , अक्षत चन्दन से , तिलक सुशोभित भौं मध्य में , शिव-त्रिशूल , भंगम , भभूत से || चन्द्र जटा में शीतल बैठा , गंगा की धरा जो बहती , सर्प थिरकता कुंडली साधे , एक मूल पर कितने धागे || भौं-भंगिमा तनी-तनी है , है ललाट पर शीतल काया , तीन नेत्र में क्रोध की अग्नि , सहसा तन पर भस्म रमाया || कहत रहीम सुनो भाई साधो , शिव ही सुन्दर , शिव शक्ति है , परम धीर , पौरुष का साधक , शिव स्वरुप , शिव ही भक्ति है || ... ऋतु की कलम से

'रंगमंच'

त्रुटियों के पन्ने रोज़ पलटते रहते हैं, तृष्णा मन की व्याकुल गाथा कह जाती है, प्रतिपल मैं सोचूं, है छोटी सी यह सृष्टि, सागर में भी आकाश दिखाई देता है | है भाग्य मसीहा, सोच-सोच इतराऊँ मैं, संछिप्त कहूं या सदियाँ इसमें पाऊँ मैं, है रंगमंच जीवित कितना भड़कीला सा, निर्जीव-सजीव सा अपना पत्र निभाऊं मैं | ऋतु की कलम से..